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कंकाल-अध्याय -३

निष्ठुर माता-पिता ने अन्य सन्तानों के जीवित रहने की आशा से अपने ज्येष्ठ पुत्र को महात्मा का शिष्य बना दिया। बिना उसकी इच्छा के वह संसार से-जिसे उसने अभी देखा भी नहीं था-अलग कर दिया गया। उसका गुरुद्वारे का नाम देवनिरंजन हुआ। वह सचमुच आदर्श ब्रह्मचारी बना। वृद्ध गुरुदेव ने उसकी योग्यता देखकर उसे उन्नीस वर्ष की ही अवस्था में गद्दी का अधिकारी बनाया। वह अपने संघ का संचालन अच्छे ढंग से करने लगा। हरद्वार में उस नवीन तपस्वी की सुख्याति पर बूढ़े-बूढ़े बाबा ईर्ष्या करने लगे और इधर निरंजन के मठ की भेंट-पूजा बढ़ गयी; परन्तु निरंजन सब चढ़े हुए धन का सदुपयोग करता था। उसके सद्गुणों का गौरव-चित्र आज उसकी आँखों के सामने खिंच गया और वह प्रशंसा और सुख्याति के लोभ दिखाकर मन को इन नयी कल्पनाओं से हटाने लगा; परन्तु किशोरी के मन में उसे बारह वर्ष की प्रतिमा की स्मरण दिला दिया। उसने हरद्वार आते हुए कहा था-किशोरी, तेरे लिए गुड़िया ले आऊँगा। क्या यह वही किशोरी है? अच्छा यही है, तो इसे संसार में खेलने के लिए गुड़िया मिल गयी। उसका पति है, वह उसे बहलायेगा। मुझ तपस्वी को इससे क्या! जीवन का बुल्ला विलीन हो जायेगा। ऐसी कितनी ही किशोरियाँ अनन्त समुद्र में तिरोहित हो जायेंगी। मैं क्यों चिंता करूँ? परन्तु प्रतिज्ञा? ओह वह स्वप्न था, खिलवाड़ था। मैं कौन हूँ किसी को देने वाला, वही अन्तर्यामी सबको देता है। मूर्ख निरंजन! सम्हल!! कहाँ मोह के थपेड़े में झूमना चाहता है। परन्तु यदि वह कल फिर आयी तो? भागना होगा। भाग निरंजन, इस माया से हारने के पहले युद्ध होने का अवसर ही मत दे। निरंजन धीरे-धीरे अपने शिविर को बहुत दूर छोड़ता हुआ, स्टेशन की ओर विचरता हुआ चल पड़ा। भीड़ के कारण बहुत-सी गाड़ियाँ बिना समय भी आ-जा रही थीं। निरंजन ने एक कुली से पूछा, 'यह गाड़ी कहाँ जायेगी?' 'सहारनपुर।' उसने कहा। देवनिरंजन गाड़ी में चुपचाप बैठ गया। दूसरे दिन जब श्रीचन्द्र और किशोरी साधु-दर्शन के लिए फिर उसी स्थान पर पहुँचे, तब वहाँ अखाड़े के साधुओं को बड़ा व्यग्र पाया। पता लगाने पर मालूम हुआ कि महात्माजी समाधि के लिए हरद्वार चले गये। यहाँ उनकी उपासना में कुछ विघ्न होता था। वे बड़े त्यागी हैं। उन्हें गृहस्थों की बहुत झंझट पसन्द नहीं। यहाँ धन और पुत्र माँगने वालों तथा कष्ट से छुटकारा पाने वालों की प्रार्थना से वे ऊब गये थे। किशोरी ने कुछ तीखे स्वर से अपने पति से कहा, 'मैं पहले ही कहती थी कि तुम कुछ न कर सकोगे। न तो स्वयं कहा और न मुझे प्रार्थना करने दी।' विरक्त होकर श्रीचन्द्र ने कहा, 'तो तुमको किसने रोका था। तुम्हीं ने क्यों न सन्तान के लिए प्रार्थना की! कुछ मैंने बाधा तो दी न थी।' उत्तेजित किशोरी ने कहा, 'अच्छा तो हरद्वार चलना होगा।' 'चलो, मैं तुम्हें वहाँ पहुँचा दूँगा। और अमृतसर आज तार दे दूँगा कि मैं हरद्वार से होता हुआ आता हूँ; क्योंकि मैं व्यवसाय इतने दिनों तक यों ही नहीं छोड़ सकता।'' 'अच्छी बात है; परन्तु मैं हरद्वार अवश्य जाऊँगी।' 'सो तो मैं जानता हूँ।' कहकर श्रीचन्द्र ने मुँह भारी कर लिया; परन्तु किशोरी को अपनी टेक रखनी थी। उसे पूर्ण विश्वास हो गया था कि उन महात्मा से मुझे अवश्य सन्तान मिलेगी। उसी दिन श्रीचन्द्र ने हरद्वार के लिए प्रस्थान किया और अखाड़े के भण्डारी ने भी जमात लेकर हरद्वार जाने का प्रबन्ध किया। हरद्वार के समीप ही जाह्नवी के तट पर तपोवन का स्मरणीय दृश्य है। छोटे-छोटे कुटीरों की श्रेणी बहुत दूर तक चली गयी है। खरस्त्रोता जाह्नवी की शीतल धारा उस पावन प्रदेश को अपने कल-नाद से गुंजरित करती है। तपस्वी अपनी योगचर्या-साधन के लिए उन छोटे-छोटे कुटीरों में रहते हैं। बड़े-बड़े मठों से अन्न-सत्र का प्रबन्ध है। वे अपनी भिक्षा ले आते हैं और इसी निभृत स्थान में बैठकर अपने पाप का प्रक्षालन करते हुए ब्रह्मानन्द का सुख भोगते हैं। सुन्दर शिला-खण्ड, रमणीय लता-वितान, विशाल वृक्षों की मधुर छाया, अनेक प्रकार के पक्षियों का कोमल कलरव, वहाँ एक अद्भुत शान्ति का सृजन करता है। आरण्यक-पाठ के उपयुक्त स्थान है।

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2 Comments

Mohammed urooj khan

13-Dec-2023 01:56 PM

👌🏾👌🏾

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Milind salve

13-Dec-2023 10:34 AM

V nice

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